उत्तर छायावाद के प्रखर कवि रामधारी सिंह दिनकर एक कवि ही
नहीं समर्थ गद्यकार हैं। वे भारतेन्दु युग से प्रवहमान राष्ट्रीय भावधारा के एक
महत्त्वपूर्ण आधुनिक कवि हैं। उन्होंने प्रबंध, मुक्तक, गीत-प्रगीत, काव्यनाटक आदि अनेक काव्य शैलियों में सफलतापूर्वक उत्कृष्ट
रचनाएँ
प्रस्तुत की हैं। भारतीय और पाश्चात्य साहित्य का उनका
अध्ययन-अनुशीलन विस्तृत एवं गंभीर है।
प्रस्तुत कविता में स्वाधीन भारत में जनतंत्र के उदय का
जयघोष है। सदियों बाद भारत विदेशी पराधीनता से मुक्त होकर जनतंत्र का
प्राण-प्रतिष्ठा किया है। आज भारत सोने का ताज पहनकर इठलाता है। मिट्टी की मूर्ति
की तरह मूर्तिमान रहने वाला आज अपना मुँह खोल दिया है। वेदना को सहनेवाली जनता
हुँकार भर रही है। जनता की रूख जिधर जाती है उधर बवंडर उठने लगते हैं। आज राजा का
नहीं पुजा का अभिषेक होनेवाला है। आज का देवता मंदिरों प्रासादों में नहीं
खेत-खलिहानों में हैं। वस्तुतः कवि जनतंत्र के ऐतिहासिक और राजनीतिक अभिप्रायों को
उजागर करते हुए एक नवीन भारत का शिलान्यास सा करता है जिसमें जनता ही स्वयं
सिंहासन पर आरूढ़ होने में है।