पाठ का अर्थ
भारतेन्दु युग के प्रतिनिधि कवि प्रेमधन जी हिन्दी साहित्य
के प्रखर कवि है। ये काव्य और जीवन दोनों क्षेत्रों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को
अपना आदर्श मानते थे। प्रेमधन जी निबंधकार नाटककार कवि एवं समीक्षक थे। इनकी काव्य
रचना अधिकांशतः ब्रजभाषा और अवधी में है
युग के प्रभाव से खड़ी बोली का व्यवहार और गधोन्मुखता साफ
झलकती है।
प्रस्तुत कविता में कवि राष्ट्रीय स्वाधीनता की चेतना को
अपना सहचर बनाकर साम्राज्यवाद एवं सामंतवाद का विरोध किया है। लोगों की सोच उनके
कुंठित मानसिकता का परिणाम है। आज विदेशियों वस्तुओं में लोगों की आसक्ति बढ़ गई
है। भारतीयता का कहीं नामोनिशान नहीं दिखता है। हिन्दु, मुस्लमान,
ईसाई आदि सभी पाश्चात्य संस्कृति को धड़ले से अपना रहे हैं।
पठन-पाठन,
खान-पान, पहनावा आदि सभी
विदेशियों चीजों की तरफ आकर्षित हो गये हैं।
आज सर्वत्र अंग्रेजी का बोल-बाला है। पराधीन भारत की
दुर्दशा बढ़ती जा रही है। हिन्दुस्तान के नाम लेने से कतराते हैं। बाजारों में
अंग्रेजी वस्तुओं की भरमार है। स्वदेशी वस्तुओं को हेय की दृष्टि से देखते हैं।
नौकरी पाने के लिए ठाकुर सुहाती करने में लगे हैं। वस्तुत: यहाँ कवि समस्त
भारतवासियों को नवजागरण का पाठ पढ़ाना चाहता है। पराधीनता की बेड़ी को तोड़कर एक
नया भारत की स्थापना करना चाहता है।