रसखान के जीवन के संबंध में सही सूचनाएँ प्राप्त नहीं होती, परंतु इनके ग्रंथ ‘प्रेमवाटिका’ (1610 ई०) में यह संकेत मिलता है कि ये दिल्ली के पठान राजवंश
में उत्पन्न हुए थे और इनका रचनाकाल जहाँगीर का राज्यकाल था। जब दिल्ली पर मुगलों
का आधिपत्य हुआ और पठान वंश पराजित हुआ, तब ये दिल्ली से भाग खड़े हुए और ब्रजभूमि में आकर
कृष्णभक्ति में तल्लीन हो गए। इनकी रचना से पता चलता है कि वैष्णव धर्म के बड़े
गहन संस्कार इनमें थे। यह भी अनुमान किया जाता है कि ये पहले रसिक प्रेमी रहे
होंगे,
बाद में अलौकिक प्रेम की ओर आकृष्ट होकर भक्त हो गए। ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ से यह पता चलता है कि गोस्वामी विट्ठलनाथ ने इन्हें ‘पुष्टिमार्ग’ में दीक्षा दी। इनके दो ग्रंथ मिलते हैं – ‘प्रेमवाटिका और सुजान रसखान’। प्रमवाटिका में प्रेम-निरूपण संबंधी रचनाएँ हैं और ‘सुजान रसखान’ में कृष्ण की भक्ति संबंधी रचनाएँ।
रसखान ने कृष्ण का लीलागान पदों में नहीं, सवैयों में किया है। रसखान सवैया छंद में सिद्ध थे। जितने
सरस,
सहज, प्रवाहमय सवैये रसखान के हैं, उतने शायद ही किसी अन्य हिंदी कवि के हों। रसखान का कोई
सवैया ऐसा नहीं मिलता जो उच्च स्तर का न हो। उनके सवैयों की मार्मिकता का आधार
दृश्यों और बायांतर स्थितियों की योजना में है। वहीं रसखान के संवैयों के ध्वनि
प्रवाह भी अपूर्व माधुरी में है। ब्रजभाषा का ऐसा सहज प्रवाह अन्यत्र दुर्लभ है।
रसखान सूफियों का हृदय लेकर कृष्ण की लीला पर काव्य रचते हैं। उनमें उल्लास, मादकता और उत्कटता तीनों का संयोग है। इनकी रचनाओं से मुग्ध
होकर भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने कहा था -“इन मुसलमान हरिजनन पै, कोटिन हिन्दू क्यारिखें।
सम्प्रदायमुक्त कृष्ण भक्त कवि रसखान हिंदी के लोकप्रिय
जातीय कवि हैं। यहाँ ‘रसखान
रचनावली’
से कुछ छन्द संकलित हैं – दोहे, सोरठा और सवैया। दोहे और सोरठा में राधा-कृष्ण के प्रेममय
युगल रूप पर कवि के रसिक हृदय की रीझ व्यक्त होती है और सवैया में कृष्ण और उनके
ब्रज पर अपना जीवन सर्वस्व न्योछावर कर देने की भावमयी विदगता मुखरित है।