गुरु नानक का जन्म 1469 ई० में तलबंडी ग्राम, जिला लाहौर में हुआ था। इनका जन्म स्थान ‘नानकाना साहब’ कहलाता है जो अब पाकिस्तान में है। इनके पिता का नाम
कालूचंद खत्री, माँ का
नाम तृप्ता और पत्नी का नाम सुलक्षणी था। इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाने
का बहुत उद्यम किया, किन्तु इनका मन भक्ति की ओर अधिकाधिक झुकता गया। इन्होंने हिन्दू-मुसलमान
दोनों की समान धार्मिक उपासना पर बल दिया। वर्णाश्रम व्यवस्था और कर्मकांड का
विरोध करके निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का प्रचार किया। गुरुनानक ने व्यापक देशाटन
किया और मक्का-मदीना तक की यात्रा की। मुगल सम्राट बाबर से भी इनकी भेंट हुई थी।
गुरु नानक ने ‘सिख
धर्म का प्रवर्तन किया। गुरुनानक ने पंजाबी के साथ हिंदी में भी कविताएँ की। इनकी – हिंदी में ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों का मेल है। इनके
भक्ति और विनय के पद बहुत मार्मिक हैं। इनके दोहों में जीवन के अनुभव उसी प्रकार
गुंथे हैं जैसे कबीर की रचनाओं में, लेकिन इन्होंने उलटबाँसी शैली नहीं अपनाई। इनके उपदेशों के
अंतर्गत गुरु की महत्ता, संसार की क्षणभंगुरता, ब्रह्म की सर्वशक्तिमत्ता, नाम जप की महिमा, ईश्वर की सर्वव्यापकता आदि बातें मिलती हैं। इनकी रचनाओं का
संग्रह सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव ने सन् 1604 ई० में किया जो ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरु नानक की रचनाएँ हैं – “जपुजी’, ‘आसादीवार’, ‘रहिरास’ और सोहिला। कहते हैं कि सन् 1539. में इन्होंने ‘वाह गुरु’ कहते हुए अपने प्राण त्याग दिए।
निर्गुण निराकार ईश्वर के उपासक गुरुनानक हिंदी की निर्गुण
भक्तिधारा के एक प्रमुख कवि हैं। पंजाबी मिश्रित ब्रजभाषा में रचित इनके पद सरल
सच्चे हृदय की भक्तिभावना में डूबे उद्गार हैं। इन पदों में कबीर की तरह प्रखर
सामाजिक विद्रोह-भावना भले ही न दिखाई पड़ती हो, किन्तु धर्म-उपासना के कर्मकांडमूलक सांप्रदायिक स्वरूप की
आलोचना तथा सामाजिक भेदभाव के स्थान पर प्रेम के आधार पर सहज सद्भाव की प्रतिष्ठा
दिखलाई पड़ती है। नानक के पद वास्तव में प्रेम एवं भक्ति के प्रभावशाली मधुर गीत
हैं। यहाँ नानक के ऐसे दो महत्त्वपूर्ण पद प्रस्तुत हैं। प्रथम पद बाहरी वेश-भूषा, पूजा-पाठ और कर्मकांड के स्थान पर सरल सच्चे हृदय से
राम-नाम के कीर्तन पर बल देता है, क्योंकि नाम-कीर्तन ही सच्ची स्थायी शांति देकर व्यक्ति को
इस दुखमय जीवन के पार पहुंचा पाता है। द्वितीय पद में सुख-दुख में एक समान उदासीन
रहते
हुए मानसिक दुर्गुणों से ऊपर उठकर अंत:करण की निर्मलता
हासिल करने पर जोर दिया गया है। संत कवि गुरु की कृपा प्राप्त कर इस पद में
गोविंद से एकाकार होने की प्रेरणा देता है।
राम बिनु बिरथे जगि जनमा, जो नर दुख में दुख नहिं मानै