राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 ई० में सिमरिया, बेगूसराय (बिहार) में हुआ और निधन 24 अप्रैल 1974 ई० में। उनकी मां का नाम मनरूप देवी और पिता का नाम रवि
सिंह था। दिनकर जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव और उसके आस-पास हुई। 1928 ई० में उन्होंने मोकामा घाट रेलवे हाई स्कूल से मैट्रिक और
1932 ई० में पटना कॉलेज से इतिहास में बी० ए० ऑनर्स किया। वे
एच० ई० स्कूल, बरबीघा
में प्रधानाध्यापक, जनसंपर्क विभाग में सब-रजिस्ट्रार और सब-डायरेक्टर, बिहार विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर एवं
भागलपुर विश्वविद्यालय में उपकुलपति के पद पर रहे।
दिनकर जी जितने बड़े कवि थे, उतने ही समर्थ गद्यकार भी। उनकी भाषा कुछ भी छिपाती – नहीं, सबकुछ उजागर कर देती है। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं – ‘प्रणभंग’ ‘रेणका’ ‘हंकार’ ‘रसवंती’, ‘कुरुक्षेत्र’, रश्मिरथी’, ‘नीलकुसुम’, ‘उर्वशी’, ‘परशुराम की प्रतीक्षा’, ‘हारे को हरिनाम’ आदि। (काव्य-कृतियाँ) एवं ‘मिट्टी की ओर’, ‘अर्धनारीश्वर’, ‘संस्कृति के चार अध्याय’, ‘काव्य की भूमिका’, ‘वट पीपल’, ‘शुद्ध कविता की खोज’, ‘दिनकर की डायरी’ आदि (गद्य कृतियाँ)। दिनकर जी को ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पर साहित्य अकादमी एवं ‘उर्वशी’ पर ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुए। उन्हें भारत सरकार की ओर
से ‘पद्मविभूषण’ से भी सम्मानित किया गया था। वे राज्यसभा के सांसद भी रहे।
दिनकर जी उत्तर छायावाद के प्रमुख कवि हैं। वें भारतेन्दु
युग से प्रवहमान राष्ट्रीय भावध रा के एक महत्त्वपूर्ण आधुनिक कवि हैं। कविता
लिखने की शुरुआत उन्होंने तीस के दशक में ही कर दी थी, किंतु अपनी संवेदना और भावबोध से वे चौथे दशक के प्रमुख कवि
के रूप में ही पहचाने गये। उन्होंने प्रबंध, मुक्तक, गीत-प्रगीत, काव्यनाटक आदि अनेक काव्यशैलियों में सफलतापूर्वक उत्कृष्ट
रचनायें प्रस्तुत की हैं। प्रबंधकाव्य के क्षेत्र में छायावाद के बाद के कवियों
में उनकी उपलब्धियाँ सबसे अधिक और उत्कृष्ट हैं। भारतीय और पाश्चात्य साहित्य का
उनका अध्ययन-अनुशीलन विस्तृत एवं गंभीर है। उनमें इतिहास और सांस्कृतिक परंपरा की
गहरी चेतना है और समाज, राजनीति, दर्शन
का वैश्विक परिप्रेक्ष्य-बोध है जो उनके साहित्य में अनेक स्तरों पर व्यक्त होता
है।
राष्ट्रकवि दिनकर-की प्रस्तुत कविता आधुनिक भारत में
जनतंत्र के उदय का जयघोष है। सदियों की देशी-विदेशी पराधीनताओं के बाद.स्वतंत्रता
प्राप्ति हुई और भारत में जनतंत्र की प्राण-प्रतिष्ठा हुई। जनतंत्र के ऐतिहासिक और
राजनीतिक अभिप्रायों को कविता में उजागर करते हुए कवि यहाँ एक नवीन भारत का
शिलान्यास सा करता है जिसमें जनता ही स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ होने को है। इस कविता
का ऐतिहासिक महत्त्व है।