जिस लिपि में यह लेख छपा है, उसे नागरी या देवनागरी लिपि कहते हैं। करीब दो सदी पहले पहली बार इस लिपि के
टाइप बने और इसमें पुस्तकें छपने लगीं इसलिए इसके अक्षरों में स्थिरता आ गई है।
हिन्दी तथा इसकी विविध बोलियाँ देवनागरी लिपि में लिखी जाती
हैं। हमारे,
पड़ोसी देश नेपाल की नेपाली व नेवारी भाषाएँ भी इसी लिपि
में लिखी जाती हैं। मराठी भाषा की लिपि देवनागरी है। देवनागरी लिपि के बारे में एक
और महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि संसार में जहाँ भी संस्कृत-प्राकृत की पुस्तकें
प्रकाशित होती हैं,
वे प्रायः देवनागरी लिपि में ही छपती हैं।
गुजराती लिपि देवनागरी से अधिक भिन्न नहीं है। बंगला लिपि
प्राचीन नागरी लिपि की पुत्री नहीं, तो बहन अवश्य है।
हाँ, दक्षिण भारत की लिपियाँ वर्तमान नागरी से काफी भिन्न दिखाई देती हैं। लेकिन यह
तथ्य हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि आज कुछ भिन्न-सी दिखाई देनेवाली – दक्षिण भारत की ये लिपियाँ (तमिल-मलयालम और तेलुगु-कन्नड़) भी
नागरी की तरह प्राचीन ब्राह्मी से ही विकसित हुई हैं।
दक्षिण भारत में पोथियाँ लिखने के लिए नागरी लिपि का
व्यवहार होता था। दक्षिण भारत की यह नागरी लिपि नंदिनागरी कहलाती थी। कोंकण के
शिलाहार,
मान्यखेट के राष्ट्रकूट, देवगिरि : के
यादव तथा विजयनगर के शासकों के लेख नदिनागरी लिपि में हैं।
बारहवीं सदी में केरल के शासकों ने सिक्कों पर ‘वीरकेरलस्य जैसे शब्द नागरी लिपि में अंकित हैं। श्रीलंका के पराक्रमबाहु, विजयबाहु (बारहवीं सदी) आदि शासकों के सिक्कों पर भी नागरी अक्षर देखने को
मिलते हैं।
उत्तर भारत के महमूद गजनवी, मुहम्मद गोरी,
अलाउद्दीन खिलजी, शेरशाह, अकबर आदि शासकों ने सिक्कों पर नागरी शब्द खुदवाए थे। उत्तर भारत में मेवाड़
के गुहिल,
सांभर-अजमेर के चौहान, कन्नौज के
गाहड़वाल,
काठियावाड़-गुजरात के सोलंकी, आबू के परमार,
जेजाकभुक्ति (बुंदेलखण्ड) के चंदेल तथा त्रिपुरा के कलचूरि
शासकों के लेख नागरी लिपि में ही हैं। उत्तर भारत की इस नागरी लिपि को हम देवनागरी
के नाम से जानते हैं।
नागरी नाम की उत्पत्ति तथा इसके अर्थ के बारे में विद्वानों
में बड़ा मतभेद है। एक मत के अनुसार गुजरात के नागर ब्राह्मणों ने पहले-पहल इस
लिपि का इस्तेमाल किया,
इसलिए इसका नाम नागरी पड़ा।
‘पादताडितंकम्’
नामक एक नाटक से जानकारी मिलती है कि पाटलिपुत्र (पटना) को
नगर कहते थे। हम यह भी जानते हैं कि स्थापत्य की उत्तर भारत की एक विशेष शैली को ‘नागर शैली’
कहते हैं। अतः ‘नागर या नागरी’ शब्द उत्तर भारत के किसी बड़े नगर से संबंध रखता है। असंभव नहीं कि यह बड़ा
नगर प्राचीन पटना हो। चंद्रगुप्त (द्वितीय) “विक्रमादित्य’ का व्यक्तिगत नाम ‘देव’
था। इसलिए गुप्तों की राजधानी पटना को ‘देवनगर’
भी कहा जाता होगा। देवनगर की लिपि होने से उत्तर भारत की
प्रमुख लिपि को बाद में देवनागरी नाम दिया गया होगा। लेकिन यह सिर्फ एक मत हुआ।
कर्णाटक प्रदेश का श्रवणबेलगोल स्थान जैनों का एक प्रसिद्ध
तीर्थस्थल है। इस स्थान से विविध भाषाओं और लिपियों के अनेक लेख मिले हैं। एक अन्य
नागरी लेख में लिखा है चावुण्डराजे करविय ले। ये लेख दक्षिणी शैली की नागरी लिपि
में हैं।
देवगिरि के यादव राजाओं के नागरी लिपि में बहुत सारे लेख
मिलते हैं। कल्याण के पश्चिमी चालुक्य नरेशों के लेख भी नागरी लिपि में हैं।
उड़ीसा (कलिंग प्रदेश) में ब्राह्मी को एक विशेष शैली, कलिंग लिपि का आस्तित्व था, परंतु गंगवंश के कुछ
शासकों के लेख नागरी लिपि में भी मिलते हैं।
उत्तर भारत में पहले-पहल गुर्जर-प्रतीहार राजाओं के लेखों
में नागरी लिपि देखने को मिलती है। मिहिर भोज, महेन्द्रपाल आदि
प्रख्यात प्रतीहार शासक हुए। मिहिर भोज 1840-81 ई की ग्वालियर प्रशस्ति नागरी लिपि (संस्कृत भाषा) में है।