आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1907 ई० में आरत दुबे का छपरा, बलिया (उत्तर प्रदेश)
में हुआ। द्विवेदी जी का साहित्य कर्म भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास की रचनात्मक
परिणति है। संस्कृत,
प्राकृत, अपभ्रंश, बांग्ला आदि भाषाओं व उनके साहित्य के साथ इतिहास, संस्कृति,
धर्म, दर्शन और आधुनिक
ज्ञान-विज्ञान की व्यापकता व गहनता में पैठकर उनका अगाध पांडित्य नवीन मानवतावादी
सर्जना और आलोचना की क्षमता लेकर प्रकट हुआ है। वे ज्ञान को बोध और पांडित्य की
सहृदयता में दाल कर एक ऐसा रचना संसार हमारे सामने उपस्थित करते हैं जो विचार की
तेजस्विता,
कथन के लालित्य और बंध की शास्त्रीयता का संगम है। इस
प्रकार उनमें एकसाथ कबीर,
तुलसी और रवींद्रनाथ एकाकार हो उठते हैं। उनकी सांस्कृतिक
दृष्टि अपूर्व है। उनके अनुसार भारतीय संस्कृति किसी एक जाति की देन नहीं, बल्कि समय-समय पर उपस्थित अनेक जातियों के श्रेष्ठ साधनांशों के लवण-नीर संयोग
से विकसित हुई हैं।
द्विवेदीजी की प्रमुख रचनाएँ हैं – ‘अशोक के फूल’,
‘कल्पलता’, ‘विचार और वितर्क’, ‘कुटज’,’विचार-प्रवाह’,
‘आलोक पर्व’, ‘प्राचीन भारत के कलात्मक
विनोद’
(निबंध संग्रह); ‘बाणभट्ट की
आत्मकथा’,
‘चारुचंद्रलेख’, ‘पुनर्नवा’, ‘अनामदास का पोथा’
(उपन्यास); ‘सूर साहित्य’, ‘कबीर’,
‘मध्यकालीन बोध का स्वरूप’, ‘नाथ संप्रदाय’,
‘कालिदास की लालित्य योजना’, ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’, ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’, ‘हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास’ (आलोचना-साहित्येतिहास); ‘संदेशरासक’,
‘पृथ्वीराजरासो’, ‘नाथ-सिद्धों की
बानियाँ'(ग्रंथ संपादन): ‘विश्व भारती’
(शांति निकेतन) पत्रिका का संपादन। द्विवेदीजी को आलोकपर्व’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार, भारत सरकार द्वारा ‘पद्मभूषण’
सम्मान एवं लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा डी० लिट् की उपाधि
मिली। वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय, शांति निकेतन
विश्वविद्यालय,
. चंडीगढ़ विश्वविद्यालय आदि में प्रोफेसर एवं प्रशासनिक पदों
पर रहे। सन् 1979 में दिल्ली में उनका निधन हुआ।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली से लिए गए प्रस्तुत निबंध
में प्रख्यात लेखक और निबंधकार का मानववादी दृष्टिकोण प्रकट होता है। इस ललित
निबंध में लेखक ने बार-बार काटे जाने पर भी बढ़ जाने वाले नाखूनों के बहाने अत्यंत
सहज शैली में सभ्यता और संस्कृति की विकाम-गाथा उद्घाटित कर दिखायी है। एक ओर
नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की आदिम पाशविक वृत्ति और संघर्ष चेतना का प्रमाण है तो
दूसरी ओर उन्हें बार-बार काटते रहना और अलंकृत करते रहना मनुष्य के सौंदर्यबोध और
सांस्कृतिक चेतना को भी निरूपित करता है। लेखक ने नाखूनों के बहाने मनोरंजक शैली
में मानव-सत्य का दिग्दर्शन कराने का सफल प्रयत्न किया है। यह निबंध नई पीढ़ी में
सौंदर्यबोध,
इतिहास चेतना और सांस्कृतिक आत्मगौरव का भाव जगाता है।