विश्वविख्यात विद्वान फ्रेड्रिक मैक्समूलर का जन्म आधुनिक
जर्मनी के डेसाउ नामक नगर में 6 दिसंबर 1823 ई० में हुआ था। जब मैक्समूलर चार वर्ष के हुए, उनके पिता विल्हेल्म मूलर नहीं रहे। पिता के निधन के बाद उनके परिवार की
आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय हो गई, फिर भी मैक्समूलर
की शिक्षा-दीक्षा बाधित नहीं हुई। बचपन में ही वे संगीत के अतिरिक्त ग्रीक और
लैटिन भाषा में निपुण हो गये थे तथा लैटिन में कविताएँ भी लिखने लगे थे। 18 वर्ष की उम्र में लिपजिंग विश्वविद्यालय में उन्होंने संस्कृत का अध्ययन आरंभ
कर दिया। सन् 1994 में उन्होंने ‘हितोपदेश’
का जर्मन भाषा में अनुवाद प्रकाशित करवाया। इसी समय
उन्होंने ‘कठ’
और ‘केन’
आदि उपनिषदों का जर्मन भाषा में अनुवाद किया तथा ‘मेघदूत’
का जर्मन पद्यानुवाद भी किया।
मैक्समूलर उन थोड़े-से पाश्चात्य विद्वानों में अग्रणी माने
जाते हैं जिन्होंने वैदिक तत्त्वज्ञान को मानव सभ्यता का मूल स्रोत माना। स्वामी
विवेकानंद ने उन्हें ‘वेदांतियों का भी वेदांती’ कहा। उनका भारत के प्रति
अनुराग जगजाहिर है। उन्होंने भारतवासियों के पूर्वजों की चिंतनराशि को यथार्थ रूप
में लोगों के सामने प्रकट किया। उनके प्रकाण्ड पांडित्य से प्रभावित होकर
साम्राज्ञी विक्टोरिया ने 1868 ई० में उन्हें अपने ऑस्बोर्न प्रासाद में ऋग्वेद तथा संस्कृत के साथ यूरोपियन
भाषाओं की तुलना आदि विषयों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया था। उस भाषण
को सुनकर विक्टोरिया इतनी प्रभावित हुईं कि उन्हें ‘नाइट’
की उपाधि प्रदान कर दी, किन्तु उन्हें यह
पदवी अत्यंत तुच्छ लगी और उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। भारतभक्त, संस्कृतानुरागी एवं वेदों के प्रति अगाध आस्था रखने वाले फ्रेड्रिक मैक्समूलर
का 28 अक्टूबर सन् 1900 ई० में निधन हो गया।
प्रस्तुत आलेख वस्तुत: भारतीय सिविल सेवा हेतु चयनित युवा
अंग्रेज अधिकारियों के आगमन के अवसर पर संबोधित भाषणों की श्रृंखला की एक कड़ी है।
प्रथम भाषण का यह अविकल रूप से संक्षिप्त एवं संपादित अंश है जिसका भाषांतरण डॉ.
भवानीशंकर त्रिवेदी ने किया है। भाषण में मैक्समूलर ने भारत की प्राचीनता और
विलक्षणता का प्रतिपादन करते हुए नवागंतुक अधिकारियों को यह बताया कि विश्व की
सभ्यता भारत से बहुत कुछ सीखती और ग्रहण करती आयी है। उनके लिए भी यह एक सौभाग्यपूर्ण
अवसर है कि वे इस विलक्षण देश और उसकी सभ्यता-संस्कृति से बहुत कुछ सीख-जान सकते
हैं। यह भाषण आज भी उतना ही प्रासंगिक है, बल्कि
स्वदेशाभिमान के विलोपन के इस दौर में इस भाषण की विशेष सार्थकता है। नई पीढ़ी
अपने देश तथा इसकी प्राचीन सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-साधना, प्राकृतिक वैभव आदि की महत्ता का प्रामाणिक ज्ञान प्रस्तुत भाषण से प्राप्त कर
सकेगी।