प्रस्तुत पाठ में लेखक महोदय ने जाति प्रथा के कारण समाज
उत्पन्न रूढ़िवादिता एवं लोकतंत्र पर खतरा को चित्रित किया है।
आज के वैज्ञानिक युग में भी “जातिवाद”
के पोषकों की कमी नहीं है। उनका तर्क है कि आधुनिक समाज ‘कार्य-कुशलता’
के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है। चूंकि जाति-प्रथा
भी श्रम-विभाजन का दूसरा रूप है। परन्तु जाति-प्रथा के कारण श्रमिकों का
अस्वाभाविक विभाजन,
विभाजित वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार
देती है,
जो विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।
अस्वाभाविक श्रम विभाजन के कारण मनुष्य स्वतंत्र रूप से
अपनी पेशा का चुनाव नहीं कर सकता। माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार पेशा
निर्धारित कर दिया जाता है। मनुष्य को जीवन भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती
है। भले ही पेशा अनुपयुक्त और अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। पैतृक पेशा
में वह पारंगत नहीं हो इसके बाद भी चुनाव करना पड़ता है। जाति-प्रथा भारत में
बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी
जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी
बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग ‘निर्धारित कार्य को ‘अरूचि’
के साथ विवशतावश करते हैं। ऐसी परिस्थिति में स्वभावतः
मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित
करती है। आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकारक प्रथा है।
लेखक की दृष्टि में आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता,
भ्रातृत्व पर आधारित होगा। भ्रातृत्व अर्थात् भाईचारे में
किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। आदर्श समाज में गतिशीलता होनी चाहिए कि वांछित
परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो सके। दूध-पानी के मिश्रण की
तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है। और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र मूलतः सामूहिक
जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है।
इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो।