पाठ का अर्थ
निर्गुण निराकार ब्रह्म के उपासक गुरूनानक निर्गुणभक्ति
धारा के प्रखर कवि हैं। पंजाबी समिश्रित ब्रजभाषा इनकी रचना का मूलाधार है। कबीर
की तरह इनकी रचनाएँ भले ही न हो फिर भी धर्म-उपासना, कर्मकाण्ड आदि के स्थान पर प्रेम की पीर की अनुभूति स्पष्ट
झलकती है।
पहले पद में कवि ने बाहरी वेश-भूषा, पूजा-पाठ और कर्मकाण्ड के स्थान पर सरल हृदय से राम नाम के
कीर्तन पर बल दिया है। वस्तुतः कवि दशरथ पुत्र राम की स्तुति न कर परम ब्रह्म उस
सत्य की उपासना करने पर बल दिया है जो अगोचर और निराकम है। नाम कीर्तन ही. इस
भवसागर से मुक्ति दिलाता है। जिसने जन्म लेकर राम की कीर्तन नहीं किया उसका जीवन
निरर्थक है। उस खान-पान, रहन-सहन आदि सभी विष से परिपूर्ण होता है। संध्या, जप-पाठ आदि करने से मुक्ति नहीं मिलती है। जटा बढ़ाकर भस्म
लगाने,
तीर्थाटन करने से आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति नहीं होती है।
गुरू कृपा और राम-नाम ही जीवन की सार्थकता है।
दूसरे पद में कवि ने सुख-दुख में एक समान उदासीन रहते हुए
मानसिक दुर्गुणों से ऊपर उठकर अतः करण की निर्भरता हासिल करने पर जोर दिया है।
ईर्ष्या,
लोभ, मोह आदि से परिपूर्ण मानव के पास ईश्वर फटकता तक नहीं है। जिस प्रकार
पानी-पानी के साथ मिलकर अपना स्वरूप उसी में अर्पण कर देता है उसी प्रकार गुरूं की
कृपाकर मनुष्य ईश्वर रूपी स्वरूप से प्राप्त कर लेता है।