सन् 1916 से 1922 के आसपास की काशी। पंचगंगा घाट स्थित बालाजी विश्वनाथ मंदिर . की ड्योढ़ी।
ड्योढ़ी का नौबतखाना और नौबतखाने से निकलनेवाली मंगलध्वनि।।
अमीरूद्दीन अभी सिर्फ छह साल का है और बड़ा भाई शम्सुद्दीन
नौ साल का। अमीरूद्दीन को पता नहीं है कि राग किस चिड़िया को कहते हैं। और ये लोग
हैं मामूंजान वगैरह जो बात-बात पर भीमपलासी और मुलतानी कहते रहते हैं। क्या बाजिब
मतलब हो सकता है इन शब्दों का इस” लिहाज से अभी उम्र नहीं
है अमीरूद्दीन की;
जान सके इन भारी शब्दों का बजन कितना होगा।
अमीरूद्दीन का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ है। 5-6 वर्ष डुमराँव में बिताकर वह नाना के घर, ननिहाल काशी में
आ गया है। शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं। उनकी अबोध उम्र में अनुभव
की स्लेट पर संगीत प्रेरणा की वर्णमाला रसूलनवाई और बजूलनवाई ने उकेरी है। इसे
संगीत शास्त्रांतर्गत ‘सुषिर-वाद्यों’
में गिना जाता है। अरब देश में फूंककर बजाए जाने वाले वाद्य
जिसमें नाड़ी नरकट या रीड) होती है को ‘नय’ बोलते हैं। शहनाई को ‘शाहनय अर्थात् ‘
सुषिर वाद्यों में शाह की उपाधि दी गई है।
शहनाई की इसी मंगलध्वनि के नायक बिस्मिल्ला खाँ साहब अस्सी बरस
से सुर माँग रहे हैं। सच्चे सुर की नेमत। अस्सी बरस की पाँचों वक्त वाली नमाज इसी
सुर को पाने की प्रार्थना में खर्च हो जाती है। लाखों सजदे इसी एक सच्चे सुर की
इबादत में खुदा के आगे झुकते हैं। बिस्मिला खाँ और शहनाई के साथ जिस मुस्लिम पर्व
का नाम जुड़ा है,
वह मुहर्रम है। आठवीं तारीख उनके लिए खास महत्त्व की है। इस
दिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते हैं व दालमंडी में फातमान के करीब आठ किलोमीटर
की दूरी तक पैदल रोते हुए,
नौटा बजाते जाते हैं।
बचपन की दिनों की याद में वे पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन
की कचौड़ी वाली दुकान व गीताबाली और सुलोचना को ज्यादा याद करते हैं। सुलोचना उनकी
पसंदीदा हीरोइन रही थीं।
अपने मजहब के प्रति अत्यधिक समर्पित उस्ताद बिस्मिला खाँ की
श्रद्धा काशी विश्वनाथ जी के प्रति भी अपार है। वे जब भी काशी से बाहर रहते हैं तब
विश्वनाथ व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके बैठते हैं, थोड़ी देर ही सही,
मगर उसी ओर शहनाई का प्याला घुमा दिया जाता है और भीतर की
आस्था रीड के माध्यम से बजती है।
काशी संस्कृति की पाठशाला है। शास्त्रों में आनंदकानन के
नाम से प्रतिष्ठित है। काशी में कलाधर हनुमान व नृत्य-विश्वनाथ हैं। काशी में
विस्मिल्ला खाँ है। काशी में हजारों सालों का इतिहास है जिसमें पंडित कंठे महाराज
हैं, बड़े रामदास जी है,
मौजुद्दीन खाँ हैं व इन रसिकों से उपकृत होने वाला अपार
जन-समूह है।
आपकी। अब तो आपको भारतरत्न भी मिल चुका है, यह फटी तहमद न पहना करें। अच्छा नहीं लगता, जब भी कोई आता है
आप इसी फटी तहमद में सबसे मिलते हैं।” खाँ साहब
मुस्काराए। लाड़ से भरकर बोले “धत। पगली ई भारतरत्न
हमको शहनईया’
पे मिला है, लगिया पे नाहीं।
नब्बे वर्ष की भरी-पूरी आयु में 21 अगस्त 2006 को संगीत रसिकों की हार्दिक सभा से हमेशा के लिए विदा हुए खाँ साहब।