दौड़ते हुए हम लोग एक
पतली गली में घुस गए। इस गली से घर नजदीक पड़ता था। दूसरे रास्तों में बहुत भीड़
थी। बाजार का दिन था। लेकिन बूंदें पड़ने से भीड़ के बिखराव में तेजी आ . गई थी।
दौड़ इसलिए रहे थे कि डर लगता था कि मछलियाँ बिना पानी के झोले में ही न मर जाएँ।
झोले में तीन मछलियाँ थीं। एक तो उसी वक्त मर गई थी जब पिताजी खरीद रहे थे। वो
जिन्दा थीं। झोले में उनकी तड़प के झटके मैं जब तब महसूस करता था। मन ही मन सोच
रहा था कि एक मछली पिताजी से जरूर माँग लेंगे। फिर उसे कुँए में डालकर बहुत बड़ी
करेंगे। जब मन होगा बाल्टी में निकालकर खेलेंगे। बाद में फिर कुँए में डाल देंगे।
अब जोर से पानी गिरने
लगा था। बरसते पानी में खड़े होकर झोले का मुँह आकाश की तरफ फैलोकर मैंने खोल दिया
ताकि आकाश का पानी झोले के अन्दर पड़ी मछलियों पर पड़े। पानी के छींटे पाकर, कहीं आसपास किसी तालाब या नदी का अंदाजकर जोर से मछली उछली।
झोला मेरे हाथ से छूटते-छूटते बचा।
नहानघर के बाल्टी में
मैंने झोले की तीनों मछलियाँ उड़ेल दीं। अगर बाल्टी भरी होती तो मछली उछलकर नीचे आ
जाती। एक बार एक छोटी सी मछली मेरे हाथ से फिसलकर नहानघर की नाली में घुस गई थी।
हाथों से मैंने और सन्तू ने हटोल टंटोलकर ढूँढा था। जब दिखी नहीं तो हम घर के पीछे
जाकर खड़े हो गए थे जहाँ घर की नाली एक बड़ी नाली से मिलती थी। गंदे पानी में मछली
दिखी नहीं।
संतू मछलियों की तरफ
प्यार से देखता था। वह मछलियों को छूकर देखना चाहता था। लेकिन डरता भी था। बाल्टी
के थोड़ा और पास खिसककर एक मछली को पकड़ते हुए मैंने कहा, “संतू! तू भी छूकर देख ना””नहीं, काटेगी” संतू ने इनकार करते हुए कहा। नीचे दबी हुई मछली
को आँखों में मैं अपनी
छाया देखना चाहता था। दीदी कहती थी जो मछली मर जाती है उसकी आँखों में झाँकने से
अपनी परछाईं नहीं दिखती।
“माँ
कहाँ है ?
उस तरफ मसाला पीस रही है।” मेरा दिल बैठ गया। “च: चः मछली के मसाला होगा” “आज ही बनेगी” दुःख से मैंने कहा।
“भइया! मछली अभी कट जायेगी।” भोलेपन से संतू ने पूछा। “हाँ” फिर संतू भी उदास हो गया। माँ को घर में मछली, गोश्त खाया करें लेकिन माँ ने सख्ती से मना कर दिया था। और किसी को अच्छा भी नहीं लगता था केवल पिताजी खाते थे।
भग्गू को जैसे मालूम था कि मछलियाँ नहानघर में हैं। आते ही वह अंगोछे में तीनों मछलियाँ निकाल लाया। कुँए में मछली पालने का उत्साह बुझ-सा गया था। कमरे में जाकर देखा तो सच में दीदी करवट लिए लेटी थी। संतू को मैंने इशारे से बुलाया कि वह भी गीले कपड़े बदल ले। शायद कुछ आहट हुई होगी। दीदी ने पलटकर हमें देखा। गीले कपड़ों में देखकर दीदी बहुत नाराज हुई। फिर प्यार से समझाया। संतू को दीदी ने खुद अपने हाथों से जाने क्यों बहुत अच्छे-अच्छे कपड़े पहनाए। मैं घर के धोए कपड़े पहिन रहा था तो दीदी ने कहा कि धोबी के धुले कपड़े पहिन लूँ। फिर दीदी ने पेटी से मेरे लिए कपड़े निकाल दिए। संतू के बड़े-बड़े बाल थे इसलिए अभी तक गीले थे। दीदी ने संतू के बालों को टावेल से पोंछकर, उनमें तेल लगाया। वायें हाथ से संतू की ठुड्डी पकड़कर दीदी ने उसके बाल सँवार दिए। जब दीदी संतू के बाल सँवार रही थी तो संतू अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से दीदी को टकटकी बाँधे देख रहा था। सभी कहते थे कि दीदी बहुत सुन्दर है।
भग्गू मछली काट रहा था
संतू एक मछली अंगोछे से उठाकर बाहर की तरफ सरपट भागा। भग्गू भी मछली काटना छोड़कर “अरे! अरे! अरे!” कहता हुआ उसके पीछे-पीछे भागा। मैं वहीं खड़ा रहा, पाटे में राख से पिटी हुई सिर कटी हुई मछली पड़ी थी। बाड़े
की तरफ आकर मैंने देखा कि कुंए के पास जमीन पर संतू जानबूझकर पट पड़ा था। दोनों
हाथों से मछली को अपने पेट के पास छुपाए हुए था। भग्गू मछली छीनने की कोशिश कर रहा
था। शायद उसे डर था कि संतू मछली कुँए में डाल देगा तो पिताजी से उसे डाँट पड़ेगी।
मैंने सुना कि अंदर की तरफ पिताजी के जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज आ रही थी। संतू
सहमा-सहमा चुपचाप खड़ा था। कीचड़ से उसके साफ अच्छे कपड़े बिल्कुल खराब हो गए थे।
बाल जिसे दीदी ने प्यार से सँवारा था उसमें भी मिट्टी लगी थी।